गुरुवार, 18 मार्च 2010

अपना शहर : बरेली

बरेली के इस वक़्त के हालात पर टिप्पणी:
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मैंने सुना है कि मंत्री महोदय

कार्यों की समीक्षा हेतु अपने शहर में पधारे हैं.

समीक्षा के बहाने आला अफसरों की

विकास भवन में एक मीटिंग बुलाये हैं.

आगामी दिनों में 'हमारे' त्यौहार

एक ही दिन पढ़ रहे हैं

और मंत्री जी स्वजनों के जुलूस को

लीक से हटकर ले जाने का फरमान

आलाहुक्मरान को देते हैं.

एक हुक्मरान ने मंत्री जी की बात में इफ एंड बट भी लगाया

किन्तु घुड़की दी गयी कि बिस्तर बाँध दिया जायगा.

यद्यपि अधिकारी ने इसपर ज्यादा तवज्जो नहीं दी

किन्तु, मंत्री जी 'अली' के कान में भी कुछ फूँक गए हैं.

रंगोली तो शालीनता से संपन्न हुयी मगर

अगले ही दिन जुलूस बरछी भालों और तलवारों के साथ

पूर्व नियोजन के साथ निकाला गया

जिसमे माननीय भी शामिल हुए

और लीक से हटकर जुलूस ले जाने का दबाव बनने लगा

. उन्हें बहाना मिल गया

और हो गयी मारकाट, लड़ाई झगडा और दंगा फसाद.

मौके से सब जिम्मेदार लोग अलग होने लगे.

कोई परदेश की राजधानी तो कोई

देश की राजधानी को खिसकने लगे.

इधर जो होना था वो हुआ और अपनी माया मौन साधे रही.

जांच पड़ताल का दौर चला

और एक चिन्हित को अन्दर कराने में कामयाबी तो मिली.

पर ये क्या... जहाँ कर्फ्यू में रोजी रोटी का रोना रोया जा रहा था,

वहीं कुछ नुमाइंदे जमात बनाकर

कालेज में रात डेढ़ दो बजे एकत्र होने लगे.

प्रशासन ने देखा, जाना किन्तु फिर भी जमात चिन्हित को छुड़ाने को अड़ गयी.

प्रशासन ने सख्ती तो की, पर ऍम. डी. को हटा दिया गया

और मेरे अली रहनुमा बनकर डटे रहे

और आने वालों को मौके पर जाने से किसी न किसी बहाने रोकते रहे.

फिर क्या? चिन्हित को रिहा कर दिया गया

और शहर में अमन चैन के सन्देश का ऐलान किया गया.

जो होना था वो हो गया.

जमात खुश हुयी, पुष्ट हुयी और तुष्टि का भरपूर फायदा उठाने लगी.

हम कातर नज़रों से निहारते रहे, सुनते रहे, समझते भी रहे,

लेकिन कुछ न कर सके.

हम कुछ कर भी नहीं सकते

हमें प्रेम और भाईचारे की घुट्टी जो पिला दी गयी,

उन्हें ढाडस बंधाने हेतु हमें थपथपाया गया.

उनकी छोटी सी बात चर्चा में चली

किन्तु हमारे जख्मों को मात्र सहलाया गया.

हमारे अपने ही उनके सुर में सुर मिलाते गए,

हमें अपने दर्द को दबाने की हिदायत देते रहे.

माननीय अपने मतों का ख्याल रखते रहे

और बुद्धिजीवी कुछ करने की सामर्थ्य खोते रहे /
काश मै जाहिल और गंवार होता

तो कानून और सौहाद्र की भाषा से अनभिज्ञ होता /

मौके पर ही कुछ कर डालता और

बाद में अपने भूखे और नंगे होने की दुहाई देकर /
इसी प्रकार साफ़ बच जाता और

मन में उठ रही अब तक की

इस टीस से उबर गया होता /

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

माँ

वह माँ जिसने नौ माह
मुझे कोख में रखा
जन्म दिया पाला पोसा
गीले से सूखे में रखा
मैं नंगा था, भूखा था
उसने ढककर दुग्धपान कराया
रोया था, चिल्लाया था
तो लोरी गा कर चुप कराया
मुझे चिपकाये रखा सीने पर
बराबर नज़र रखती रही मुझ पर
मैं घुटनों के बल चलने लगा
ऊँगली पकड़कर चलना सिखाया
मैं खेलने लगा इधर उधर
दिल में रखती रही मुझे निरंतर
कभी कोई खरोंच जो लग गई मुझ
तो भी चोट लग गई ‘उसके’ दिल पर
परिवार मेरी पाठशाला थी
हर वस्तु स्वयं में एक किताब थी
गुरु का काज करती रही माँ
मुझे इक इक पाठ पढाती रही माँ
कुनबे के मदरसे से बाहर
एक इमारत सी बनी थी
‘स्कूल’ नाम था इसका शायद
जो चूने पत्थर से सनी थी
धूप सेंकता रहा साल भर
पल्ले न पड़ सका खाक भर

मंगलवार, 9 मार्च 2010

आत्मीयता

उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा,
मित्र अपनी सेहत का ध्यान रखो
मैं उनकी आत्मीयता और सहानुभूति से गदगद हो गया
फिर अगले ही दिन
मेरे उसी कंधे पर रख दी गयी
एक बन्दूक,
जिसके घोड़े पर थी उनकी उँगलियाँ
और निशाने पर
वे सारे के सारे उपादान
जो मेरी सेहत के लिए काफी थे...............

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

जन्म- स्थली


मैंने जन्म लिया , पर्वतो की बीच घाटी में,
और आ गया तब मैदान की तलहटी में,
पड़ा लिखा नौकरी करने लगा,
रोटी मिलने लगी, घर भूलने लगा,
मैं ही क्या, सब भूल जाते हैं,
तब जबकि वह सितारों की दुनिया में बसने लगते हैं,
मैं भूल गया उस जन्मस्थली को, दुग्धपान कराने वाली जननी को,
भावाभिव्यक्ति से क्या मैं, लौट रहा हूँ,
या अनायास ही अपनी खामियों को व्यक्त कर रहा हूँ,
कुछ भी हो यह मेरा वर्चस्व है,
मुझे मालूम है की जन्मस्थली ही सर्वस्व है.