शुक्रवार, 12 मार्च 2010

माँ

वह माँ जिसने नौ माह
मुझे कोख में रखा
जन्म दिया पाला पोसा
गीले से सूखे में रखा
मैं नंगा था, भूखा था
उसने ढककर दुग्धपान कराया
रोया था, चिल्लाया था
तो लोरी गा कर चुप कराया
मुझे चिपकाये रखा सीने पर
बराबर नज़र रखती रही मुझ पर
मैं घुटनों के बल चलने लगा
ऊँगली पकड़कर चलना सिखाया
मैं खेलने लगा इधर उधर
दिल में रखती रही मुझे निरंतर
कभी कोई खरोंच जो लग गई मुझ
तो भी चोट लग गई ‘उसके’ दिल पर
परिवार मेरी पाठशाला थी
हर वस्तु स्वयं में एक किताब थी
गुरु का काज करती रही माँ
मुझे इक इक पाठ पढाती रही माँ
कुनबे के मदरसे से बाहर
एक इमारत सी बनी थी
‘स्कूल’ नाम था इसका शायद
जो चूने पत्थर से सनी थी
धूप सेंकता रहा साल भर
पल्ले न पड़ सका खाक भर

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